शनिवार, 11 मई 2013

नियति नटी के खेल निराले ......

 
नियति नटी के खेल निराले , खोले उसने नयन कपाट
दूर-दूर तक पसरा दिखता ,सब रेतीला साफ़ सपाट

सपने चूर हुए पल भर में .मेघ निराशा के छाये
जाने कब आए जीवन में फिर आशाओं के साये

गूँज उठे जब मेरे मन में,उन यादों के प्यारे नग़में
चैन न पाऊं पल भर उनको ,सुने बिना इस जग में

दीप-ज्योति है लगी कांपने,खत्म दीप का स्नेह हुआ
दिल सुलगे तंदूर सरीखा, निकल रहा बस धुआँ-धुआँ

किसे सुनाएँ अपनी पीड़ा, जब वक्त हमारा रूठ गया,
नेह नगर मॆं कोई बंजारा, आया सब कुछ लूट गया,

मंजिलें थी पास में मेरे, जाने राह क्यूँ भटक गई
बीच भंवर में मेरी नैया,आकर कैसे यूँ अटक गई

अन्धकार की धुंधली आभा, जाने कहाँ विलीन हुई
मन ही मन तड़पू ऐसे, मानो जल बिन मीन हुई

खुशिया सब हुई पराई, अब गम ने दस्तक दे डाली
रीत गया आशा का अमृत, अंजलि रही खाली खाली

थे कल तक जो मेरे अपने, बन गये आज पराये
रहे सदा खुशहाल जीवन में , ना विपदा उन पर आयॆ,

दुनिया को अंधकार से, सदा बचाना है धर्म मेरा,
जलते रहना इस जग में ,"दीप"हमेंशा कर्म तेरा
दीपिका" दीप "

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