रविवार, 14 अप्रैल 2013

आखिर कब तक


.मैं ऐसे ही कब तक यूँ ,तुम्हें मिलने को तरसूँगी
बताओं तुम क्या यूँ ही मैं तुम्हें मिलने को तरसूँगी

मैं अपने दर्द को भूलूँ मिल जाए साथ तुम्हारा तो
बदल दूँ जिन्दगी अपनी मिल जाएँ हाथ हमारा तो
अगर तुम न मिल पाओ जीवन भर यूँही तरसूँगी
बताओं तुम क्या यूँ ही मैं तुम्हें मिलने को तरसूँगी

तुम्हारी जिन्दगी में यूँ मुसाफिर रोज मिलते है
तुम्हें मिल कर के जाने क्यूँ वे चेहरे रोज खिलते है
एक मैं ही क्या बस यूँहीं तुम्हें मिलने को तरसूँगी
बताओं तुम क्या यूँ ही मैं तुम्हें मिलने को तरसूँगी

न जानूं प्रीत जन्मों की ये कैसी फ़ाग गाई है
सुलग जाएँ तन-बदन मेरा ये वैसी आग लगाई है
मन ही मन घबराऊं तुम्हें मिलने को तरसूँगी
बताओं तुम क्या यूँ ही मैं तुम्हें मिलने को तरसूँगी

दीपिका "दीप "

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