गुरुवार, 25 अप्रैल 2013

प्रीत की प्यास लिए मन में

 
प्रीत की प्यास लिये मन में
जीवन -पनघट पर जा बैठी

देखा जो पिया को राह खड़े
मैं जाने क्यूँ सकुंचा बैठी

नयन हुए जब चार पिया से
अपनी सुध-बुध खो बैठी

प्रीत की गगरी भर-भर कर
मैं नेह अपना छलका बैठी

मन में पिया की मूरत रख
मैं जीवन -पथ पर चल बैठी

मिलन हुआ सत जन्मों का
खुद को न्यौछावर कर बैठी

देखा पिया जब चंदा सा
मैं चाँदनी उनकी बन बैठी

चंचल सागर की लहरों पे,
जीवन की नाव चला बैठी

सावन की प्यासी सरगम में
अपनी भी तान मिला बैठी

पिय के हाथों की लकीरों में
मैं अपना भाग्य लिखा बैठी ..

इस से पहले कि सांझ ढले
मैं प्रेम का "दीप 'जला बैठी .
दीपिका "दीप "

गुरुवार, 18 अप्रैल 2013

चाहतों का सिला दीजिए...

 
 
बाद में फिर सज़ा दीजिए,
जाम पहले पिला दीजिए

हो गयी गर मैं बेहोश तो,
होश फिर से दिला दीजिए

प्यास की पीर साक़ी से है,
चाहतों का सिला दीजिए .

फिर ख़िजा ने उजाड़ा चमन,
आप ही गुल खिला दीजिए.

मंजिलें मिल सकें इश्क की ,
राह फिर से दिखा दीजिए.

नब्ज़ रुक रुक के चलती है क्यूँ,
धड़कनों को बता दीजिए .

कह रही कुछ ये बेताब शब्,
दीप कुछ अब जला दीजिये .
                                                                   दीपिका "दीप "

रविवार, 14 अप्रैल 2013

आखिर कब तक


.मैं ऐसे ही कब तक यूँ ,तुम्हें मिलने को तरसूँगी
बताओं तुम क्या यूँ ही मैं तुम्हें मिलने को तरसूँगी

मैं अपने दर्द को भूलूँ मिल जाए साथ तुम्हारा तो
बदल दूँ जिन्दगी अपनी मिल जाएँ हाथ हमारा तो
अगर तुम न मिल पाओ जीवन भर यूँही तरसूँगी
बताओं तुम क्या यूँ ही मैं तुम्हें मिलने को तरसूँगी

तुम्हारी जिन्दगी में यूँ मुसाफिर रोज मिलते है
तुम्हें मिल कर के जाने क्यूँ वे चेहरे रोज खिलते है
एक मैं ही क्या बस यूँहीं तुम्हें मिलने को तरसूँगी
बताओं तुम क्या यूँ ही मैं तुम्हें मिलने को तरसूँगी

न जानूं प्रीत जन्मों की ये कैसी फ़ाग गाई है
सुलग जाएँ तन-बदन मेरा ये वैसी आग लगाई है
मन ही मन घबराऊं तुम्हें मिलने को तरसूँगी
बताओं तुम क्या यूँ ही मैं तुम्हें मिलने को तरसूँगी

दीपिका "दीप "

बुधवार, 10 अप्रैल 2013

सतरंगी आभा

 

दृश्य हुआ अभिराम बहुत तब ,वलय पहन जब नभ निकला
सतरंगी आभा से विस्मित ,दमक उठी अब धरा विकला
देख-देख कर रूप अनूप अब ,मन ही मन संकुची वो मही
हरा दुकूल झट ओढ़ लिया,आभा न कमतर उसकी कहीं
पगडण्डी-नागिन बलखाती ,सरपट झटपट भाग रही
मणि समझ कर मणिधर के सर ,ढूंढें व्याकुल व्याल यहीं
गर्जन तर्जन बंद हुआ सब ,गगन लगे अब धुला-धुला
धरती का हर कौना निखरा ,रूप दिखा खूब खिला -खिला
दीपिका "दीप "

मंगलवार, 9 अप्रैल 2013

परिचय ...

 

 

 

 क्यों हूँ भव में कौन हूँ मैं ,मन में करूं जब तनिक विचार
प्रति उत्तर पाऊं न जब मन से ,हो जाऊं तब बहुत लाचार

सोचती रहती विधना का ,ऐसा क्या वो वृहद उद्धेश्य
भेज दिया मुझे भव सागर ,आकंठ डूबी हूँ पल में नि:शेष

क्रन्दन करते लाचारों की, पीड़ा हरना मेरा काम ?
कामना -रथ नित पींगें भरता ,मैं कैसे रह लूँ निष्काम

मानवता हित करने मुझको ,क्या नित नूतन ऐसे कर्म
जान न पाई अब तक इतना ,क्या है मेरे जन्म का मर्म

विद्रूपताएं दूर करूं मैं ,अग जग से अन्याय भगे
सुख-शान्ति फैलादूँ भव में, क्या ऐसे मेरे भाग्य जगे

तिमिरांचल का नाम जो ले कोई , "दीप"की आभा जगमग करें
लक्ष्य-भ्रष्ट हो राह नहीं भटके ,कदम कोई भी न डगमग धरे

मात-पिता ने नाम दिया जब ,'दीपिका' सार्थक तो करूँ
परिचय मेरा खुद मिल जाएँ , ऐसे काव्य तो सृजन करूं
दीपिका "दीप "

शुक्रवार, 5 अप्रैल 2013

ये दिन ढल गया ...

 

                                                            
संध्या हुई दीप जल गया है
अब ये दिन ढल गया है

पंखी अम्बर का नाप माप
नीड़ों में अपने लौट गये है
गोधूलि में गऊओ की टोली
खेल रही अब धूल से होली

संध्या हुई दीप जल गया है
अब ये दिन ढल गया है

लहरें भी अब थक सों गई है
सागर में जाकर ले अंगडाई
पूरब दिशा फिर मुस्काई है
शशी से मिलने निशा आई है

संध्या हुई दीप जल गया है
अब ये दिन ढल गया है
संकेत कुछ इस  तरह हुआ है
थके पथिक लौट रहे घर अपने
 निगाहें मेरी द्वार पर टिकी है 
आहट कदमों की पास आ रुकी है

संध्या हुई दीप जल गया है
अब ये दिन ढल गया है

                                                                               दीपिका "दीप ''




                                                                 


बुधवार, 3 अप्रैल 2013

कवि मन

 
छिपा रहता अथाह भाव सागर
अन्तस् के गहरे विवर में
यूँ हीं कभी ज्वार जब आ जाता
तटबंधों को आप्लावित कर देता
अजस्त्र धाराएं बेकल हो फूटती
स्रोतस्विनी कल-कल कर बहती
तीव्रगामी हो प्रवाहित हो जाती
उलचती औचक कोरे कागज पर
निज व्यथा में आकंठ डूबोती
अनुभूत सत्य की मर्मस्पर्शी पीडाएं
आकुल अंतर से अनुभूतियाँ बतलाती
नम हो नैत्रों की कोरें भिगोती
कवि मन से जब बाहर छलकती
विद्रूपताएं ,विषमताएं रोष भर देती
बंध तोड़ प्रस्फुटित हो जाती
निराश ह्रदय में नव आशा जगाती
कवि की जब लेखनी चल जाती
सुषुप्त मानव को देता उद्बोधन
भाव प्रवाह जब नव रस में बहता
मानव् अग्रसर कर्मपथ पर होता
निमीलित करती स्वप्निल आकांक्षाएं
अतृप्त वासनाएं झलक दिखलाती
जीजिविषाएँ मुखरित हो जाती
आश्रय पाती प्रिय स्कन्ध पर
भावावेग बंध तोड़ अपने सेतु से
रवि न पहूँचता वहाँ कवि मन पहुँचता
सुगाह्य कथन का अनुसरण करता
हर्षातिरेक से मनमयूर नाचता
जग में उथल-पुथल कर देता
पल में शुरातन शूरों को चढ़ाता
अनायास जब कवि मन गीत गाता
मुमुक्षु मानव साधना रत होता
अपने ही मन में लगा कर गोता
जान न पाया थाह अब तक ये भव
रत्न कितने छिपाएँ है कवि मन
                        दीपिका "दीप "

                                                                                                                                                                                                                                                      

सोमवार, 1 अप्रैल 2013

मानव से तो प्यार करो रे .................


हो मानव जब तुम मानव से तो प्यार करो रे !

निराश ह्रदय में आशा का संचार करो रे !!


कातर स्वर कितने नित्य तुम्हें पुकार रहे है !

पीड़ा से अपनी निश -दिन वे चीत्कार रहे है !!

बन पीड़ा हर सब पीड़ित जनों के त्रास हरो रे !

निराश ह्रदय में आशा का संचार करो रे !! 1


कितनी ही श्वासें गर्भों में दम तोड़ रही है !

कलिया कितनी ही खिले बिन चटक रही है !!

मानव हो तो दानव सा मत काम करो रे !

निराश ह्रदय में आशा का संचार करो रे !!2



तरुणाई कितनी लक्ष्य हीन हो भटक रही है !

माताएं कितनी वृद्धाश्रम में तड़प रही है !!

मझधार में डूबती नैया की पतवार बनो रे !

निराश हृदय में आशा का संचार करो रे !!3



हो मानव जब तुम मानव मन की थाह गहो रे !

क्षमा दया तप त्याग की मिसाल बनो रे !!

अब मानवता हित तेजी से हुंकार भरो रे !

निराश ह्रदय में आशा का संचार करो रे !!4

दीपिका "दीप''