शनिवार, 30 मार्च 2013

लौट आओ नीड़ में ...

  
पंछी अब लौट आओ अपने नीड़ में
व्याकुल तुम क्यों हो इतने भीड़ में
माना मेने बड़ी दूर तुम निकल ग़ए
जाने क्या बात हुई इतने विकल भए

पंछी अब लौट आओ अपने नीड़ में

डाली है ऊँची जिस पर मुग्ध हुए तुम
देख कर छाया घनी लुब्ध हुए तुम
पहले से ही पंछी कई नीड़ है बनाएँ
डाली पे झूला झूलते मन में हर्षाए

पंछी अब लौट आओं अपने नीड़ में

मयूर सम सुंदर न तो पँख है तुम्हारे
कोयल सम मधुर न तो स्वर है तुम्हारे
जब कोयल कुहूकती टहुकती कैसी डाली
नाचते मयूर तब झूमती है कैसी डाली

पंछी अब लौट आओ अपने नीड़ में

दर्द से अपने तुम जब भी फडफडाओगे
डाली से राहत की मरहम भी न पाओगे
तड़प के तब मन में प्राण क्यूँ गँवाते हो
सिंदूरी शाम हुई लौट क्यूँ न आते हो

पंछी अब लौट आओ अपने नीड़ में
दीपिका द्विवेदी "दीप "

1 टिप्पणी: