शनिवार, 30 मार्च 2013

कविता मैं लिखती हूँ

 
कविता में कई बार लिखती हूँ .
कई बार केवल मानस में उभरती .
बोझल हो फिर ओझल हो जाती
बेबस हो कभी पन्नों पर उभरती
आँखे बरबस भर-भर आती.
क्षणिकता पर अपनी है बतियाती.
विस्मित अभिलाषाए, विस्मित आंकाक्षाए.
प्रश्नों को अगणित नित्य रचती .
जीवन क्षणिक है या प्रेम क्षणिक ?
खत्म हुआ स्नेह या बुझ गया दीप ?
मन ही मन ये सोच अकुलाती .
चीकट लिजलिजी भावनाए उभरती .
समय की सिकुडन देख लरजती .
महासागर हुआ है अब निर्झल.
मचलती उर्मिया अब कहाँ इठलाती .
कैसे जगे आखिर रेत में सागर .
अनसुनी चीखे गले से निकलती
मुक्त करो मुझे अतीत के छल से .
मुक्त करो भविष्य के जहर से .
मुक्त करो वर्तमान के मिथक से .
मुक्त करो कामनाओ व् प्रतीक्षाओ से.
लौटना चाहती हूँ अँधेरे सीलन भरे सफर से .
जानना चाहती हूँ धरती-गगन का छोर
सागर का वन-उपवन का छोर
इस स्नेहासिक्त ह्रदय का छोर
ये ही सोच बार-बार उतरती
कविता में फिर भी लिखती हूँ "दीप "
March 11

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