रविवार, 31 मार्च 2013

कुछ हो गया है ऐसे

मुझे कुछ हो गया है ऐसे
आँखों में, मेरी धडकन में
हर शख्स, हर अक्स में
हर आस में हर श्वास में
हर-डगर में ,हर नगर में
हर गली .हर मोहल्ले में
बीच बाजार में ,चौराहों में
मेरे पास हर समय हो तुम !
हाँ सिर्फ तुम हो सिर्फ तुम !!

एक प्रहरी खड़ा हो जैसे
चिर सजग उर्जस्वित
अपनी पैनी निगाहें गड़ाए
देखती हूँ हर वक्त तुम्हें
महसूस करती हूँ खुद में
प्रवाहित रक्त धमनियों में
हर्ष-विषाद ,सुख-दुःख में
मुझे हर घड़ी दीखते हो तुम !
हाँ सिर्फ तुम हो सिर्फ तुम !!


एक पथ प्रदर्शक हो जैसे
निमिष में ,पल-पल में
हर मौसम के हर प्रहर में
हर साल के हर दिन में
गतिमान हो गति में
दीप्तिमान हो दीप्ति में
राह दिखाते भटकनों में
मेरी हर भूल बताते हो तुम !
हाँ सिर्फ तुम हो सिर्फ तुम !!

एक परछाई मेरी हो जैसे
सूर्योदय की लालिमा में
कुहूँ निशा की कलिमा में
जीवन के स्वर्णिम प्रभात में
संघर्षयूत सांध्यवेला में
अभिसार में विरह जनित वेला में
मेरे हर सुर में हर गीत गज़ल में
सुरीली तान सा समाते हो तुम !
हाँ सिर्फ तुम हो सिर्फ तुम !!
                                                                 दीपिका  "दीप "

चाहत से

कितनी चाहत से उसने मुझे लूटा है
रो-रो कर उसका भी साथ अब छूटा है

वो तो था हरजाई जान पर मेरी बन आई
क्या भूल हुई जो या रब मुझसे रूठा है

कोशिशों के दरम्याँ ये बात समझ आई
सच्चाई का पुतला निकला कोरा झूठा है

ताउम्र संग रहने की कसमें क्यूँ खाई थीं,
हर वादा जाने क्यों उसका अब टूटा है .

वादा खुशियों का था बस दर्द ही दिए उसने
मेरी खुशियों का जहां हर तरफ़ से लूटा है..

वो हकीकत है या छलावा ये तो खुदा जाने.
मेरी समझ में तो मेरा मनमीत वो अनूठा है
                                                                                                                                     दीपिका "दीप "

शनिवार, 30 मार्च 2013

हम संकल्प करें

मातृभूमि का वन्दन कर हम ,मन में यह संकल्प करें !
पीड़ित श्रमित पद दलित जनों के ,संतापों को अल्प हरे!!

दीन-दुखी कितने नित इत उत ,क्षुधातुर हो भटक रहे !
दया-याचना मय हाथों को ,निर्मम हो सब झटक रहे !!
वसन-हीन को वसन देवे हम ,क्षुधातुर का उदर भरें !
दीन-हीन को गले लगा कर ,उनके सब संत्रास हरे !! मातृभूमि का .......

लूट खसोट तो मच रही हर पल ,लालच कर रहा अंधा !
अपनी रोटी सेंक-सेंक कर ,मानव कर रहा धंधा !!
धंधे को चौपट कर उनके,दर पर लगा दे ताला !
भूखे नंगें विवश जनों का,छीने जब मुंह से नवाला !!मातृभूमि का ........

प्रतिभा की अब कदर नहीं तब, कागा बन गया हंसा !
कान्हा तो आए नहीं अब जब , घर-घर आ गया कंसा !!
क्षमा दया तप त्याग भरे हम,नारी का सम्मान करें !
नीर क्षीर सम न्याय करें तब, क्यों प्रतिभा प्रस्थान करे !!3मातृभूमि का ......

लौट आओ नीड़ में ...

  
पंछी अब लौट आओ अपने नीड़ में
व्याकुल तुम क्यों हो इतने भीड़ में
माना मेने बड़ी दूर तुम निकल ग़ए
जाने क्या बात हुई इतने विकल भए

पंछी अब लौट आओ अपने नीड़ में

डाली है ऊँची जिस पर मुग्ध हुए तुम
देख कर छाया घनी लुब्ध हुए तुम
पहले से ही पंछी कई नीड़ है बनाएँ
डाली पे झूला झूलते मन में हर्षाए

पंछी अब लौट आओं अपने नीड़ में

मयूर सम सुंदर न तो पँख है तुम्हारे
कोयल सम मधुर न तो स्वर है तुम्हारे
जब कोयल कुहूकती टहुकती कैसी डाली
नाचते मयूर तब झूमती है कैसी डाली

पंछी अब लौट आओ अपने नीड़ में

दर्द से अपने तुम जब भी फडफडाओगे
डाली से राहत की मरहम भी न पाओगे
तड़प के तब मन में प्राण क्यूँ गँवाते हो
सिंदूरी शाम हुई लौट क्यूँ न आते हो

पंछी अब लौट आओ अपने नीड़ में
दीपिका द्विवेदी "दीप "

कविता मैं लिखती हूँ

 
कविता में कई बार लिखती हूँ .
कई बार केवल मानस में उभरती .
बोझल हो फिर ओझल हो जाती
बेबस हो कभी पन्नों पर उभरती
आँखे बरबस भर-भर आती.
क्षणिकता पर अपनी है बतियाती.
विस्मित अभिलाषाए, विस्मित आंकाक्षाए.
प्रश्नों को अगणित नित्य रचती .
जीवन क्षणिक है या प्रेम क्षणिक ?
खत्म हुआ स्नेह या बुझ गया दीप ?
मन ही मन ये सोच अकुलाती .
चीकट लिजलिजी भावनाए उभरती .
समय की सिकुडन देख लरजती .
महासागर हुआ है अब निर्झल.
मचलती उर्मिया अब कहाँ इठलाती .
कैसे जगे आखिर रेत में सागर .
अनसुनी चीखे गले से निकलती
मुक्त करो मुझे अतीत के छल से .
मुक्त करो भविष्य के जहर से .
मुक्त करो वर्तमान के मिथक से .
मुक्त करो कामनाओ व् प्रतीक्षाओ से.
लौटना चाहती हूँ अँधेरे सीलन भरे सफर से .
जानना चाहती हूँ धरती-गगन का छोर
सागर का वन-उपवन का छोर
इस स्नेहासिक्त ह्रदय का छोर
ये ही सोच बार-बार उतरती
कविता में फिर भी लिखती हूँ "दीप "
March 11

शुक्रवार, 29 मार्च 2013

प्रेम ये मेरा !



क्या कभी जाना ये तुमने
क्या कभी माना ये तुमने
पावन कितना प्रेम मेरा
पागल कितना प्रेम मेरा

आसक्त हृदय विमोहित कुछ
स्नेहिल ह्रदय आशंकित कुछ
स्मित में नित आभासित होता
क्षणिक रुदन में शापित होता
क्या कभी जाना ये तुमने
मोहक कितना ये प्रेम मेरा१


छल नही कोई द्वेष न इसमें
निष्काम कोई ,स्वार्थ न इसमें
अश्रू बहा नित खुश हो जाता
क्यूँ इसे समझ ही नहीं पाता
क्या कभी जाना ये तुमने
कोमल कितना है ये प्रेम मेरा

नाना झंझावातो से लड़ता
आतप,शीत,पावस है सहता
क्षमा ,दया,तप,त्याग सिखाता
भटके कोई राह दिखाता
क्या कभी जाना है ये तुमने
उर्वर धरती सा प्रेम मेरा२

तारो बीच चंदा ये चमके
घटा बीच दामिनी ये दमके
कभी घरजता कभी बरसता
निराश्रित को आश्रय देता
क्या कभी जाना है ये तुमने
धरती सा विस्तृत है मेरा प्रेम

मर्यादा को न विस्मृत करता
उर्मियो मध्य हिचकोले खाता
मझधार भंवर फंस जाता कभी
नौकाए बन पार ले जाता तभी
क्या कभी जाना है ये तुमने
सागर सा गम्भीर मेरा प्रेम

दीपक पर जैसे पतंगा मरता
चंदा से जैसे चकोर करता
बिन जल शफरी तड़फती जैसे
मैं भी करूं तुमसे प्रेम वैसे
क्या कभी जाना है ये तुमने
गंगा सा पावन है ये मेरा प्रेम

क्या कभी जाना है ये तुमने
क्या कभी माना है ये तुमने
पावन कितना ये प्रेम मेरा
पागल कितना ये प्रेम मेरा ...................

दीपिका  "दीप"